वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत साहित्य में
दृश्यमान पर्यावरण संवेदनशीलता
डाक्टर. चिलकमर्ति दुर्गाप्रसाद राव
3/106, Prem nagar Dayalbagh, AGRA
डाक्टर . काट्रगड्ड राजेन्द्र नाथ
M.B.B.S
B/74, Dayal nagar, Near Kailash
Giri
Visakhapatnam-43
कस्त्वं भो कविरस्मि तत्किमु सखे क्षीणोSस्यनाहारत: धिग्देशं गुणिनोSपि दुर्गतिरियम् देशं न मामेव धिक् | पाकार्थी क्षुधितो यदैव विदधे पाकाय बुद्धिं तदा विन्ध्ये नेन्धनमम्बुधौ न सलिलं ना Sन्नं धरित्रीतले ||
यह एक कवि और एक अजनबी के बीच की बातचीत है। अजनबी ने कवि से
पूछा।
कस्त्वं भो ? = आप कौन हैं?
कविरस्मि = मै एक कवि हूं।
तत्किमु सखे क्षीणोसि = क्यों तुम इतने कमजोर दिख रहे हो ?
अनाहारत:= खाने के लिए भोजन नहीं है ।
धिग्देशं गुणिनोsपि दुर्गतिरियम् = आप जैसे महान व्यक्ति की इस दुर्दशा के
कारक मै इस देश की निंदा करता हूँ ।
देशं न मामेव धिक् = मै दोषी हूं देश को दोषी मत ठहराओ ||
पाकार्थी क्षुधितो यदैव विदधे पाकाय बुद्धिं तदा = जब भी मुझे
भूख लगती है और मै भोजन पकाने की सोचता हूं
विन्ध्ये नेन्धनमम्बुधौ
न सलिलं नान्नं धरित्रीतले = तब विंध्य के जंगलों में कोई लकड़ी नहीं
मिलती और झीलों में पानी नहीं है, और पृथ्वी की सतह पर अनाज नहीं उगता है।
संस्कृत, दुनिया की प्राचीन
भाषाओं में एक है। भारत की गरिमा के संरक्षण और अभिवृद्धि के लिए इसका योगदान उल्लेखनीय है। दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य और लगभग सभी अन्य विषयों के लिए इसका
योगदान महत्वपूर्ण है। यह निश्चित रूप से एक शास्त्रीय भाषा है, लेकिन इसे भी ज्यादा है। यह सदाबहार,
ज्ञान का स्रोत है जो तरह तरह की परिस्थितियों का हल ढून्ढती हुई एक आदर्श समाज के
निर्माण के लिए अपना योगदान देती है । आजकल दुनिया के
सामने प्रस्तुत सभी गंभीर समस्याओं में से पर्यावरण प्रदूषण
की समस्या भी एक मुख्य समस्या है। पर्यावरण की सुरक्षा की दिशा में संस्कृत का योगदान
भी जबरदस्त है।
दुनिया पांच तत्वों
अर्थात् पृथ्वी, जल, वायु,
अग्नि और आकाश के गठन से उत्पन्न हुयी। जबकि इन में से तीन तत्व अर्थात् पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण से ग्रस्त हैं बाकी दो
अप्रभावित हैं । जो प्रदूषण प्राकृतिक संतुलन को विचलित (disturb) करता है उस प्रदूषण को पर्यावरण प्रदूषण भी कहते है।
प्राचीनकाल में आदमी, प्रकृति के अभिन्न अंग के रूप में था || इसके साथ उसका सौहार्दपूर्वक
सम्बन्ध था । वे अग्नि देव, वरुण देव, वायु देव के रूप में प्रकृति की शक्तियों
की पूजा करते थे, और अपने अस्तित्व की बढोत्तरी, और प्रकृति के कोप को शांत करने
के लिए देवाताओं के हस्तक्षेप के लिए प्रार्थना करते थे ।
आधुनिक युग में आदमी
कुछ हद तक अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिए किन्तु ज्यादा अपने स्वार्थ के लिए औद्योगी करण करने लगा | और अन्य गतिविधियां भी शुरू
कर दी | लेकिन जल्द ही अपने लालच की वजह से अध: पतित होकर लोभी हो गया । उन्होंने प्रकृति द्वारा
दिए हुए संपत्तियों को आधुनिकता और औद्तोगी करण का नकाब लगाकर शोषित किया |
उस के द्वारा किये हुए अन्याय, यानी प्राकृतिक संसाधनों
का शोषण , औद्योगिक प्रदूषण, वनों की कटाई और रसायनों क़ा अत्यधिक उपयोग की वजह से पर्यावरण के प्रदूषण के लिए योगदान दिया । आज की वर्तमान पीढ़ी
अतीत और भविष्य की पीढ़ी के बीच एक पुल के माफिक काम करती है | इसलिए इस वर्तमान
पीढ़ी का मुख्य दायित्व यह है कि वह आनेवाली पीढ़ी के लिए एक अच्छी विरासत छोडे ।
आधुनिक मनुष्य का
यही रवैया अगर जारी रहेगा तो यह मानवता के
अस्तित्व के लिए एक बड़ा सवाल बन जाएगा। वास्तव में कोई भी देश अविकसित
रहना नहीं चाहता। लेकिन विकास, स्वस्थ और फायदेमंद तथा कम लागत पर होना चाहिए। इस विकास
से भविष्य की पीढ़ियों के स्वास्थ्य और समृद्धी में बाधा नहीं पडनी चाहिए। इस सतत विकास
को प्राप्त करने के लिए, लालच छोड़कर प्रकृति
के साथ शांति पूर्वक रहना सीखना चाहिए। इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने वैदिक काल में रहना सीखा | इस को आनेवाली पीढ़ियों के विकास में बाधक नहीं बनना चाहिए ||
' वेद ' जो मानव जाति का पहला पुस्तक है, वह पर्यावरण पर सबसे बड़ा ग्रंथ भी माना जाता है || वेद ने मनुष्य और प्रकृति
के बीच एक स्वस्थ संबंध को सुरक्षित कर
रखा है ||यह रिश्ता मां और बच्चे के बीच के रिश्ते जैसा पवित्र होना चाहिए | पृथ्वी
को इस नज़रिये से देखा गया कि जैसे वह संपूर्ण जगत की माता और समस्त जीव
उनकी संतान हों || माता पृथिवी पुत्रोऽहं पृथिव्या: (अथर्ववेद: /12/1-12)
वैदिक काल में पर्यावरण
की शुद्धता और सास्थ्य के लिए यज्ञ के निर्वहण
को प्रोत्साहित करते थे || प्रकृति के दो रूप है एक वनस्पति और दूसरा जन्तुजाल ||
वेद ने हरियाली को
एक महत्व पूर्ण दर्जा दिया है और इस को देवांश माना है । “वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यश्च नमो नम:” अर्थात जो
वृक्ष हरे भरे हैं हम उनकी वन्दना करते है
|| भारतीय संस्कृति के अनुसार वृक्षारोपण एक पवित्र
धर्म, और पेड़ों का विनाश एक महान पाप है। संस्कृत साहित्य में बिना
किसी अपवाद के सभी कवि प्रकृति के महान प्रेमी हैं। उन्होंने प्रकृति से सिर्फ प्रेम ही नहीं किया, बल्कि उसके साथ ममत्व भी स्थापित किया । वनस्पतियों
और जीवों के लिए संस्कृत कवियों का प्रेम उजागर करने के कई उदाहरण हैं।
रघुवंश के द्वितीय सर्ग में
एक शेर एक पेड़ के महत्व को दिलीप को समझाने
के लिए कहता है। हे राजन ! आप दूर में
जो पेड़ देखते हो वह एक देवदार वृक्ष है जिस को भगवान शिव ने अपने पुत्र के माफिक संरक्षण किया । माँ पार्वती ने जिस तरह अपने
स्तनों का दूध पिला कर अपने बेटे कुमारस्वामी का पालन पोषण किया उसी तरह पार्वतीजी
ने इस वृक्ष को पानी से सींचा । यहां एक पेड़ के प्रति मातृत्व की भावना स्थापित
की गयी है ।
अमुं पुर: पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोSसौ वृषभध्वजेन
यो हेमकुम्भस्तन निसृतानां स्कन्दस्य मातु: पयसां रसज्ञ:
इसके अलावा यह भी कहा
जाता है कि एक बार एक जंगली हाथी खुजली होने पर उस का निवारण करने के लिए अपना गाल उस देवदार वृक्ष से मलत़ा है ||
तो उस वृक्ष की खाल उखड़ जाती है । तो पार्वती जी को यह दृश्य देख कर उतना ही दु:ख
हुआ जब असुरों ने उन के पुत्र कुमारस्वामी पर बाणों की वर्षा कर, घायल किया था ||
कण्डूयमानेन कटम् कदाचिद्वनद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य
अथैनमद्रेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढ मिवासुरास्त्रै: ||
हर्षवर्धन उनकी प्रसिद्ध रचना
नागानान्द नाटक में एक संत के आश्रम का वर्णन करते हुए
कहते है कि उन के आश्रम में पेड़ों की केवल
ऊपरी खाल निकालते हैं, क्यों कि गहरे स्तर पर जाने
और खुरचने से पेड़ों को बहुत दर्द होता है
|
सोSर्थं दयया च नाति पृथव: कृत्तास्तरूणाम् त्वच: (नागानन्दम्)
वैदिक काल में इन
पेड़ों के बारे में किये गये उपाख्यानों से यह बात जाहिर है कि पेड़ों को लगने वाली
छोटी सी चोट को भी गंभीरता से लिया गया और इसका विरोध किया गया ||
कुमारसंभव में कालिदास एक कदम
आगे बढ कर कहते है कि एक जहरीला पेड़ भी नहीं काटा जाना चाहिए उस व्यक्ति द्वारा
जिस ने इस पेड को बोया हों ||
विषवृक्षोSपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम्
अभिज्ञानशाकुन्तलम् में अनसूया शकुंतला के साथ बातचीत करते हुए परिहासपूर्वक बोलती है। उन्होंने
कहा :-
"मैं सोचती हू कि अपने पिता ऋषि कण्व ने हालांकि तुम बहुत नाजुक
हों फिर भी तुम को पेड़ों को पानी देने का काम सौंपा, क्यों कि वे आपनी तुलना में हमारे
आश्रम के पेड़ों को अधिक प्यार और स्नेह देते है, मुझे ऐसा लगता है।
तब शकुंतला ने उत्तर
दिया कि “वह भी वृक्षों से
बहुत प्यार करती है, उन से मेरा भाईचारा
है, इस लिए वह उनको सींच कर उनका संरक्षण कर रही है” || इस लिए नहीं
कि पिता कण्व ने उन्हें पेड़ों को सींचने के लिए कहा था || कण्व के आश्रम से
जब शकुंतला अपने शसुराल जा रही थी यह बात ध्यान देने लायक है कि वहाँ मौजूद हर वृक्ष ने उस को आभूषण प्रदान किये ||
क्षौमं केनचिदिन्दुपाण्डुतरुणा
माङ्गल्यमाविष्कृतं
निष्ट्यूतश्चरणोनोपभोगसुलभो लाक्षारस: केनचित् |
अन्योभ्यो वनदेवताकरतलैरापर्वभागोत्थितै:
दत्तान्याभरणानि तत्किसलयोद्भेदप्रतिद्वन्दिभि: ||
इसी प्रकार कण्व
ऋषि जब शकुंतला को अपने आश्रम से ससुराल जुदा कर
रहे वक्त उन्होंने शकुंतला द्वारा वृक्षों की सेवा का जिक्र करते हुए , उन से
शकुन्तला की विदाई की अनुमति मांगी ।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते प्रियमंडनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् |
आद्ये व: कुसुमप्रसूतिसमये यस्या: भवत्युत्सव:
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ||
हमारी संस्कृति किसी
भी परिस्थिति में पेड़ का कोई नुकसान बरदाश्त नहीं करती || इस हद तक यह बात चली गयी कि अत्यावश्यक परिस्थितियों में पेड़ या पौधों का
विनाश हो तो उस का मुआविजा दिया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, अंतिम संस्कार के वक्त पेड पौधों
का नुकसान होता है, इस क्षति पूर्ति के
लिए वृक्षों और पौधो का रोपण किया जाना चाहिए
हमारी संस्कृति में
वृक्षों के रोपण को अत्यधिक प्रोत्साहन
दिया गया । फलों और फूलों से सुसज्जित
वृक्ष का संरक्षण करना चाहिए। अगर फल प्रदान नहीं करता है, यह कम से कम छाया तो देता है।
सेवितव्यो महावृक्ष: फलच्छायासमन्वित:
यदि दैवात्फलं न स्याच्छाया केन निवार्यते
वृक्षों की तुलना
सत्पुरुषों से की गयी है | पेड़ खुद धूप में
ठहर दूसरों को छाया देते हैं, फल खुद न खा कर दूसरों को समर्पित करते हैं ।
छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे
फलान्यापि परार्थाय वृक्षा: सत्पुरुषा: इव
अब हम पर्यावरण के
अन्य पहलू , जंतुओं पर भी गौर करें । यह दिलचस्पी की बात है सभी जानवर अपने विरोधी
स्वभाव को भूलकर ऋषियों के आश्रम में परस्पर मैत्री पूर्ण वातावरण में रहते थे ||
और ऋषि उनकी देखभाल अपनी संतान के माफिक करते थे || रघुवंश में वशिष्ठ के आश्रम का
वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ने कहा कि आदमी और जानवर में मां-बेटे का रिश्ता कायम था || वशिष्ट का आश्रम हिरणों
से भरपूर था और वे आपने खाने के हिस्से के लिए बच्चों के माफिक, अनाज अन्दर ले
जाती हुयी ऋषि पत्नियों का रास्ता रोकते थे ||
आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभि:
अपत्यैरिवनीवारभागधेयोचितैर्मृगै: (1/50)
एक जानवर को एकबार एक शिकारी ने पकड़ा, वह उस को बांध कर ले जा रहा था || उस जानवर की मानसिक पीड़ा कितनी दुर्भर लगती है स्वयं अपने आप अंदाज लगाइये ।
“ओह ! मेरे प्रिय शिकारी!
आप मेरे शरीर के हर हिस्से को काट लो । लेकिन मेरे थन छोड़ दो । क्योंकि मेरे
नवजात बच्चे मुलायम घास खाने के लिए अभी असमर्थ हैं || इसलिए वे मेरे आगमन का बड़ी
बेसबरी से उस दिशा की ओर जहां से मै आयी थी उस ओर देखते हुए इंतिजार कर रहे है || मैं अगर उन्हें दूध नहीं पिलाती तो वे मर जायेंगे
। इस लिए तुम मेहरबानी करके थन के अलावा सब भाग काट के ले जावो ” ||
आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमङ्गान्
मां मुञ्च वागुरिक यामि कुरु प्रसादम् |
सीदन्ति शष्प कबल ग्रहणानभिज्ञा:
मन्मार्गवीक्षणरता : शिशवो मदीया:
(वल्लभदेवस्य
सुभाषितावळि : ९८१)
खाद्य पदार्थ और उनका
निर्यात, वैज्ञानिक प्रयोग , औषधियों
की तैयारी , और शृंगार द्रव्य
आदि प्रयोजनों के लिए जानवरों की अंधाधुंध हत्या, प्राकृतिक संतुलन में विघ्न डाल सकता है ।
एक बार चीन में किसानों ने सोचा कि खाद्यान्न का पांच प्रतिशत हिस्सा चिडियां खा जाती हैं |
इसलिए सभी चिड़ियों को मार डाला। इस के
बावजूद खाद्यान्न के उत्पादन में बारह प्रतिशत
नुकसान देखने को मिला। हालांकि चिडियां अनाज की कुछ राशि का उपभोग करती है, नुकसान के अधिक प्रतिशत का कारण यह था कि फसलों को हानिकारक कीड़ों से बचाने वाली चिड़ियाँ ही नहीं
रही, जो उन कीड़ों को खाती थी || “ अहिंसा परमो धर्म:” अहिंसा सर्वोच्च धर्म है ", “ मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि ” सभी जानवरों को मारना
नहीं चाहिए "इस तरह वेदों ने अहिंसा की वकालत ली है ||
हमारी संस्कृति में, प्रकृति में मौजूद हर प्राणी को एक दिव्य
जीव के माफिक माना जाता है और उसकी उपासना की जाती है || जहरीले साँपों को भी भगवान
का स्वरूप मान, उनकी पूजा की जाती है ||
पृथ्वी :--- वैदिक समय से आज तक हम पृथ्वी को सिर्फ एक भौतिक वस्तु के रूप में ही नहीं बल्कि एक प्यारी माता
के रूप में भी देखते है जो अपनी सभी जीवों का पालना पोषण करती है । इसी तरह
भूगर्भा में तमाम खजाने हैं , सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन भी नहीं बल्कि सोना और
दुसरे धातु भी हैं । लेकिन प्राकृतिक संपत्ति का शोषण करना गंभीर अपराध है। पृथ्वी हमारी जरूरत को पूरा कर सकती
हैं लेकिन लालच को
नही। पृथ्वी जब इस का शोषण को पार करता है वह
बर्दाश्त नहीं करती || महाभारत की एक कथा इस बारे में कहती है ||
एक बार राजा कर्ण अपने उसके राज्य
में रथ पर घूमने निकले । उस समय एक लड़की ने जिका हाथ में तेल से भरा हुआ बरतना था
राजा को करीबा से जाते हुए देखा। उसकी
सुम्दरता देख कर लड़की मुग्ध हो गयी, उन की ओर निहार ने लगी । तब उस के हाथ का तेल से भरा बर्तन जमीन पर गिर
गया और पूरा तेल पृथ्वी में समा गया। लडकी रोते हुए कर्ण से तेल वापस देने को कहती
है । कर्ण ने मिट्टी को निचोड़ा और पचास प्रतिशत
तेल वापस मिला गया । लड़की ने कर्ण से फिर से बचे हुए तेल का आग्रह किया , ताब कर्ण
ने मिट्टी को फिर से निचोडा, इसा दफा
अस्सी प्रतिशत तेल वापस मिला । फिर से लड़की ने बचे हुए तेल के लिए आग्रह किया । कर्ण ने कोशिश की। पृथ्वी
माता इस बार क्रोधित हुई, और कर्ण को शाप दिया, कहा जब तुम अपने शत्रु से युद्ध कर रहे होगे तब तम्हारा रथ
में डूब धस जाएगा और तुम्हारे शत्रु तम्हारा
वध करेंगे । यह कहानी सिद्ध करती है कि प्रकृति कुछ हद तक शोषण बर्दाश्त
करती है लेकिन बेहद शोषण नही ।
जल :-- पानी मानवजीवन
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पानी के महत्व के बारे में वेद
में सैकड़ों मंत्र उपलब्द हैं। जल संस्कृत में
जीवनम् कहा जाता है। जीवनम् जीवन का मतलब है। यह अमरत्व के लिए एक पेय
है। हम जीने के लिए भोजन पर निर्भर करते हैं और भोजन के लिए अनाज का उत्पादन आवश्यक
है और कृषि पानी पर निर्भर करता है।
हमारी संस्कृति में
पानी को प्रदूषित करना एक महान पाप कहलाता
है । रामायण में भरत कौशल्या से कहते है कि माँ ! मुझे बड़े भाई राम को वनवास भेजने में मेरा
कोई बूरा इरादा नहीं है, अगर ऐसा हो तो मै उस आदमी के
माफिक जो पीने के पानी को प्रदूषित कर जिस
नरक को जाता है, तो मैं भी निश्चित रूप से उसी नरक को जाऊँगा
|| आजकल हम इस दयनीय स्थिति में हैं कि हम
जल प्रदूषण के कारण पीने का पानी भी खरीद कर पी रहे है । यह बहुत आश्चर्य
की बात है कि एक लिटर दूध की कीमत
एक लिटर पीने के पानी की कीमत के बराबार है |
वायु :-- वायु की महिमा के
बारे में वेदों में सैकड़ों मंत्र हैं। स्वच्छ वायु हमारे स्वास्थ्य और लंबी उम्र
के लिए आवश्यक है । हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ऑक्सीजन का हर कण जो हम श्वास लेते है वह कभी न
कभी निश्चित रूप से किसी वृक्ष से उत्पन्न
हुआ होगा । इसलिए वेद में वायु की प्रशंसा परम देवता के रूप में की गयी है ।
नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं
ब्रह्म | त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मां अवतु वक्तारम् ओम् शान्ति : शान्ति : शान्ति : ||
हमारे देश में कई जगहों पर उद्योग और रसायनों की वजह से वायु प्रदूषित हों गयी है
ऐसा भी दिन आसकता है कि ज़िंदा रहने के लिए हमें स्वच्छ हवा भी ख़रीदानी
पड़े ।
इसी तरह प्रदूषण कई प्रकार की है जैसे ध्वनि प्रदूषण, मन का प्रदूषण, विचारों का प्रदूषण आदि |
विचारों का प्रदूषण सब प्रदूषणों का मूल कारण है और
इस को सुधारा जा सकता है नितिशास्त्र और संहिता तथा योगाभ्यास द्वारा ||
मनुष्य और प्रकृति
के बीच का बंधन अति प्राचीन काल से बेहद मजबूत माना जाता है । यह हमारा परम कर्तव्य है कि प्रकृति को जेसे का तैसा रहने दे, और इस में हस्तक्षेप न
करें, नहीं तो यह अराजकता और अस्थिरता की ओर बढेगा || इसा बारे में अमेरिका के प्रसिद्ध
लेखक Ernest Haming way जिन्हें साहित्य
में Nobel पुरस्कार से अलंकृत किया गया, कहते है कि “प्रकृति को बदलना
प्रकृति को समाप्त करना है”
अगर साहित्यकार , और पर्यावरणविद , पर्यावरण प्रदूषण को रोकने
में अपना योगदान देते है, तो यह प्रकृति के लिए
एक महान सेवा होगी।
इस संबंध में मेरा विचार है, पॉलीथीन कवर का उपयोग करना रोकना, पेड़ों के रोपण को प्रोत्साहित करना सभी का कर्वव्य मानता हूं || इस
विषय को एक केंद्र बिंदु बनाकर एक आंदोलन की
जरुरत है । यह निम्नलिखित अमेरिकी कहावत आप के मन में कुछ परिवर्तन ला सकता हैं।
" सिर्फ आखिरी पेड़ को
काटने के बाद
सिर्फ आखिरी मछली पकड़ने
के बाद ,
सिर्फ आखिरी नदी के जहरीले होने
के बाद ,
ही आप
को एहसास होगा कि '' सिर्फ पेसा ही खाया नहीं जा सकता ”
(Only after the last tree has been cut
down,
Only after the last fish has been
caught,
Only after the last river has been
poisoned,
Only then will you realize that money
cannot be eaten )
--- Native American Saying----
उपयुक्तग्रंथसूची :-
1.अभिज्ञानशाकुन्तलम् - कालिदास
2 कुमारसंभव: - कालिदास
3. नागानन्दम् – श्रीहर्ष:
4. रघुवंश:-- कालिदास:
5. ऋग्वेद:।
6. सुभाषितरत्नभण्डागारम् |
7. यजुर्वेद:।
8. पत्रिकाओं और समाचार
पत्रों।
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