संपूर्णविद्या षोडशकळापूर्ण होना चाहिए
डाक्टर. चिलकमर्ति दुर्गाप्रसाद राव
3/106, प्रेमनगर , दयालबाग, आग्रा- 5
डाक्टर . काट्रगड्ड राजेन्द्न् नाथ
M.B.B.S
B-74, Dayalanagar,Near Kailash Giri
M.B.B.S
B-74, Dayalanagar,Near Kailash Giri
विशाखपत्तनम्-43
न केवल हमारे भारत देश में किन्तु पूरी दुनिया में अति प्राचीन काल से विद्या का स्थान महत्वपूर्ण है। विद्या ‘परा' और 'अपरा' के रूप में दो प्रकार की है। अपरा विद्या सिर्फ दुनिया से संबंधित सांसारिक, भौतिक विश्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक सक्षम औजार हैं | और इस के अतिरिक्त परा विद्या आत्मा से संबंधित कहलाता है | वह आत्मशोधन और मोक्षप्राप्ति का साधन है। हमारी संस्कृति में इन दोनों का समान आदर है | एक दुसरे से कम नहीं है || इन दोनों विद्याओं के विना आदमी जानवर के समान है | महाकवि भर्तृहरि ने कहा कि विद्याविहीन: पशु: ||
I.
शिक्षा एक चार स्तंभों का भवन
1. माता-पिता 2. छात्र
3. शिक्षक 4. सरकार
पूरी शिक्षा प्रणाली चार स्तंभों पर आधारित
है | माता-पिता
पहला स्तम्भ, छात्र दूसरा, शिक्षक तीसरा और चौथा स्तम्भ
है सरकार
| ये चारों
अद्भुत स्तम्भों के गठन
से विद्या
प्राप्त होती
है || इसलिए विद्या प्रणाली में
सभी चार
स्तंभों का योगदान महत्वपूर्ण है || यह सामूहिक जिम्मेदारी है।
a. माता –पिता
शिक्षा प्रदान
करने में माता-पिता
की भूमिका
बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए
उन्हें हमेशा सबसे
अच्छे संभव तरीके
से अपने
बच्चों को शिक्षित करने
के लिए
प्रयास करना
चाहिए। हमारे
प्राचीन ग्रंथ
पंचतंत्र में
ऐसा लिखा
हुआ है कि जो अपने बच्चों
को नही पढ़ाते वह माता, माता
नहीं किन्तु
एक दुश्मन
है और जो पिता
अपने बच्चों
को शिक्षित नहीं करता
वो भी पिता नहीं
परन्तु एक दुश्मन
है ।
'माता
शत्रु: पिता वैरी येन बालो
न पाठित:
न शोभते सभा मध्ये
हंसमध्ये बको यथा
¨
वैदिकसाहित्य में शिक्षकों में माता-पिता
को सर्वश्रेष्ठस्थान दिया
गया है || शतपथब्राह्मण में
ऐसा लिखा
हुआ है "मातृमान्पितृमानाचार्यवान्पुरुषो वेद” जिस का मतलब
यह है कि मां , पिता और गुरु के माध्यम से ज्ञान प्राप्त होता है । इस आधुनिकयुग में
माता और पिता दोनों
इतने व्यस्त हैं
कि वे अपने बच्चों
के साथ
बैठने, उन को पढ़ाने
के लिए थोडा सा भी समय निकाल
नहीं पाते
। कुछ
विषयो में
माता-पिता
अपने बच्चों
को क्या पसंद
क्या नापसंद का विचार
किए बिना
व्यवहार करते हैं।
अधिकांश माता-पिता
अपने यह जिम्मेदारी समझते
है कि वे अपने बच्चों
को स्कूलों को भेजने
में ही उनके जिम्मेदारी ख़तम हो जाती है
| लेकिन यह केवल शुरुआत
है अंत
नहीं । उन्हें स्कूली शिक्षा
के पहले
और बाद
में अपने
बच्चों के समग्र विकास
का उचित
ध्यान रखना
चाहिए।
2. छात्र:
छात्र शिक्षा
के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाते है।
वेदों में
शिक्षा के बारे में
ऐसा कहा
गया है कि “ तद्धि तप:
तद्धि तप:
” जिस का तात्पर्य यह है कि विद्या तपस्या
के बराबर
है || आदि से अंत तक श्रद्धा दिखाना
जरुरी है
| वे हमेशा अपनी क्षमता
के अनुसार
ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास
करें। उन्हें
इसके अलावा
पाठयक्रम और पाठयक्रमों के अतिरिक्त विषयों का अध्ययन भी करना चाहिए।
आजकल यह माना जाता
है कि शिक्षा का स्तर बहुत
नीचे गिर
गया है । विषय
का अर्थ
समझे बिना
तोते के माफिक रटने
से शिक्षा
का स्तर
गिर गया
है, और शिक्षा के स्तर के गिरने का यही मूल
कारण है । इसलिए
छात्रों को विषय का अर्थ समझ
कर पढ़ना
चाहिए । लेकिन अधिकांश छात्र पाठ को रटकर अंक
प्राप्त कर रहे हैं।
वेद जो व्यक्ति पाठ्यांश का अर्थ जाने
बिना सिर्फ
रटता है उसकी
कड़ी निंदा
करते है
| और जो रटने के साथ
विषय का अर्थ समझता
है उस की भूरि प्रशंसा करते है
|
उत त्व:
पश्यन्न ददर्श
वाचं
उतत्व श्रुण्वन्न श्रुणॊत्यॆनां
उतॊ त्वस्मै तन्वं विसश्रे
जायेव पत्यु:
उशती सुवासा:
वह देखने के बावजूद भी नहीं देख रहा है | और सुन रहा
होने पर भी नहीं सुन सकता
है || लेकिन जो अर्थ के साथ अर्थात् अर्थ समझ
कर अध्ययन
करता है उन को सरस्वती बिना
संकोच उन
के वश में आ, उन्हें गले लगा कर प्रसन्न हों जायेगी
||
इसलिए हर विषय को अच्छी तरह
से पढ़ना
चाहिए। विषय
का विश्लेषण करते हुए
अध्ययन करनेवालों की बुद्धि के साथ हृदय
भी विकसित
होता है।
इसलिए सौ किताबें पढ़ने
की तुलना
में एक किताब सौ बार
पढ़ने के लिए प्रयत्न करना बेहतर
है । सौ पन्नों
को एक बार पढ़ने
की तुलना
में एक पन्ना सौ बार पढ़ने
के लिए कोशिस
करना बेहतर
है और सौ पंक्तियों को एक बार पढ़ने
की तुलना में एक पंक्ति
को सौ बार पढ़ना
बेहतर है
|| क्यों कि एक रत्तीभर गहन अध्ययन एक मन भर विस्तार से पढ़ने (extensive
reading) से भी ज्यादा बेहतर माना जाता है।
An ounce of intensive reading is better than a ton of
extensive reading
अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस प्रकार कहा, कि “ जो व्यक्ति जिस विषय
का अध्ययन
करता है वह अध्ययन
के बाद
उस विषय को एक आम आदमी को समझाने में समर्थ होना चाहिए ”। आप सही माने में कुछ
समझ नहीं सकते जब तक आप वह विषय अपनी दादी
को समझा
नहीं सकते
| You do not really understand
something, unless you can explain it to your
grandmother. ------Albert Einstein
महाकवि कालिदास ने ज्ञान
प्राप्त करने
के तकनीकों के बारे में
कहा कि ज्ञानप्राप्ति के लिए एक सुव्यवस्थित परिश्रम और व्यवस्थित ढंग से सीखने से ज्ञान
हासिल होता है और इस विषय में
महारत हासिल
करने के लिए अध्ययन निरंतर होना
चाहिए । और ज्ञान
प्राप्त करने
के लिए
कड़ी मेहनत
और गहरे अध्ययन के अलावा
कोई दूसरा
उपाय नहीं
है।
3. शिक्षक:
शिक्षक चार स्तम्भों के बीच
में से एक
स्तम्भ होने पर भी वह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। अध्यापक का लक्षण
कहते हुए
यास्काचार्य ने तीन निर्वचन दिये || जो सदाचार को आचरण
में रखने
वाला || आचरति इति आचार्य
: (1) || दूसरा निर्वचन है जो अपने छात्रों को अच्छा व्यवहार सिखाने वाला || आचारं ग्राहयति इति आचार्य
: (2) और तीसरा
निर्वचन यह है कि आचिनोति अर्थान् इति आचार्य
: अर्थात् हमेशा विद्यार्थियों के उपयोग के लिए ज्ञान
से संबंधित समाचार को इकट्ठा करने
वाला । एक शिक्षक जब वह इन तीन गुणों से
संपन्न हो तभी वह एक संपूर्ण शिक्षक कहलाता है।
और शिक्षक की प्रवीणता सिर्फ
ज्ञान हासिल करने से नहीं
बल्कि यह ज्ञान छात्रों को वितरित करने से वह महान बनता है। पढाने की कला के बारे
में महाकवि कालिदास का विचार यह है कि ज्ञान हासिल करना एक अंश
है, और उस को दूसरों को वितरित करना दूसरा अंश है । जिस शिक्षक में ये दोनों गुण पर्याप्त मात्रा
में हों वह अध्यापकों में सर्वोत्तम कहलाता है
श्लिष्टा क्रिया
कस्यचिदात्म संस्था
संक्रान्तिरन्यस्य विशॆष
युक्ता
यस्यॊभयं साधु
स शिक्षकाणां
धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव
(मालविकाग्निमित्रम् / 16)
और एक शिक्षक
को हमेशा पुरोदृष्टि ( fore sight) दूरदृष्टि (far sight) के साथ साथ अंतर्दृष्टि (insight) भी होना चाहिए
।
4. सरकार
वैदिकयुग में
शिक्षा के क्षेत्र में
गुरुकुलों का स्थान महत्वपूर्ण है, जहाँ निश्शुल्क विद्यादान दिया जाता था
|| राजा और दानी पुरुष इन गुरुकुलों का संरक्षण करते थे।
कालिदास
अपने काव्य रघुवंश में चक्रवर्ती दिलीप के शासन के बारे में उल्लेख करते हुए
कहते है कि वे जनता के लिए पिता तुल्य थे | वे उन का
शिक्षण , रक्षण और पालन पोषण करते थे | इस पकार माता पिता
बच्चों के सिर्फ जन्म कारक बन कर रह गये ||
प्राजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि
स पिता
पितरस्तासां कॆवलं
जन्महॆतव :( रघुवंश i सर्ग -24)
हमारे भारत में
यह भी स्पष्ट है कि पूर्वकाल से उच्चशिक्षा नालंदा, तक्षशिला ,
विक्रमशिला नामक कई विश्वविद्यालयों में
जाति, पंथ, धर्म, लिंग और राष्ट्रीयता के भेदभाव विना देश और विदेशी छात्रों को विद्याप्रदान
की गयी थी ||
लेकिन दुर्भाग्य की बात है की सरकार
शिक्षा के लिए राशि नियुक्त करने की जिम्मेदारी छोड़ दे रही है | उच्च शिक्षा के लिए राशि नियुक्त
करना फजूल खर्च समझने लगी है | एक पिता
को अपने बच्चे
को स्कूल में दाखिल करने के बाद
यह नहीं सोचना चाहिए कि बच्चे की शिक्षा पर लगाया गया पैसा कब
लाभ देना शुरू करेगा । पिता को यह नहीं सोचना चाहिए कि बच्चों को
शिक्षित करने के दरम्यान ही लाभ मिले , वह
लाभ बच्चे की शिक्षा पूरी होने पर ही मिलेगी ||
इसी प्रकार एक पीढ़ी पर पूंजी लगाकर तुरंत फायदे के बारे में नहीं सोचना चाहिए । इस का फल अगली पीढ़ी को मिलेगा | अत: सरकार को उदारवादी
होना चाहिए और उसे ह्रस्व दृष्टी से शिक्षा
पर लगाई गयी पूंजी के बारे में नहीं
देखना चाहिए ।
II. शिक्षा के चार प्रकार
हैं
1. शारीरिक- मानसिक- बौद्धिक-आध्यात्मिक विकास
यह पहले भी उल्लेख किया
गया है कि शिक्षक से उम्मीद की जाती है कि वह शिक्षाभवन का मुख्य स्तंभ
बने। तो यह उस का प्रतिबद्ध धर्म और उदात्त कर्तव्य भी है कि अपने इर्द
गिर्द के माहौल को ठीक करे । उस को ऐसा ज्ञान प्रदान करना चाहिए जो विद्यार्थियों के समग्र व्यक्तित्व का विकास करे और
उन्हें शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से दृढ़ बनाये | दूसरों की तुलना में शिक्षक ही अधिक प्रभावशाली ढंग से मूल्य आधारित शिक्षा और नैतिक आचरण प्रदान कर सकते है।
III. ज्ञान
के अधिग्रहण के चार
स्रोत
1. अपने शिक्षक ¼
2. अपनी बुद्धि ¼
3. सहपाठक¼
4. अनुभव ¼
भारतीय
परंपरा के अनुसार, छात्र अपने शिक्षक से एक चौथाई, अपनी बुद्धि से एक चौथाई, सह पाठक से एक चौथाई, और
अनुभव से एक चौथाई ज्ञान संचित करते है|
आचार्यात्पादमादत्तॆ पादं
शिष्य: स्वमॆधया
पादम् सब्रह्मचारिभ्य: पादं कालक्रमॆण च।
एक छात्र
को अपने शिक्षक से प्राप्त जानकारी से ही खुद को सीमित
नहीं करना
चाहिए । उन्होंने और भी कहा कि ज्ञान का विश्लेषण और कोई सुधार करना
हों तो अपने सहपाठियों के साथ चर्चा
करने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना
चाहिए। और समयानुसार पाठ्यक्रम में
वह अनुभव
के माध्यम
से व्यापक
ज्ञान संचित
करता है।
कालिदास ज्ञान प्राप्त करने के तकनीक के बारे में कहते है कि निरंतर और व्यवस्थित ढंग से परिश्रम करने से बुनियादी ज्ञान हासिल होता है || थॉमस अल्वा एडीसन ने संक्षेप में कहा कि प्रतिभा एक प्रतिशत प्रेरणा और निन्यानबे प्रतिशत पसीना बहाना है। और ज्ञान प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत और गहरे अध्ययन के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
IV. चतुर्थ। शिक्षा के चार चरण
1. अध्ययन 2. शिक्षण
3. आचरण 4.प्रचारण
हमारे भारतीय परंपरा
के अनुसार, शिक्षा के चार चरण हैं । वे अधीति (अध्ययन), बोधा (शिक्षण), आचरण (शिक्षा
के मूल्यों का अभ्यास)
और प्रचारण (शिक्षा के प्रचार-प्रसार
करना)।
विद्या का प्रयोजन केवल
अध्ययन से पूरा
नहीं होत़ा यह दूसरों के लिए वितरित
किया जाना
चाहिए। इसी
तरह नैतिकता के बिना
ज्ञान संपूर्ण नहीं
होता || यदि ज्ञान आचारण
में नहीं
हो तो वह
कुछ समय बाद खतरनाक भी साबित हों सकता
है ||
भर्तृहरि ने इस प्रकार कहा
है :--
दुर्जन: परिहर्तव्य: विद्ययालंकृतोsपि सन्
मणिना भूषित:
सर्प: किमसौ
न भयंकर
:? (नीतिशतकम्)
बुरे चरित्र
के आदमी को हालांकि वह शिक्षित हो उसका संग छोड़ देना चाहिए । एक नागिन वह अपने सिर
पर एक अनमोल रतन होने पर भी क्या
खतरनाक नहीं
?
एक शिक्षित व्यक्ति अनैतिक
हो तो वह अन्यों से भी अधिक नुकसान
कर सकता है ||
ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार इस प्रकार बताया कि “ समाज बदमाशों का उत्पादन करता है और शिक्षा एक बदमाश को दूसरे बदमाशा से ज्यादा समझदार बनाती है ” Society produces rogues and education will make one
rogue wiser than the other . ---- Oscar wild
आर्जित ज्ञान
केवल सीखे हुये व्यक्ति तक सीमित नहीं रहना
चाहिए , और धीरे-धीरे
समाज के सभी लोगों के उत्थान के लिए इस ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिये एक
तरीका है | एक व्यक्ति दुसरे को सिखाये, यह सरकार का उद्देश्य
होना चाहिए ||